कर का इतिहास मानव सभ्यता का इतिहास है, क्योंकि कोई भी मानवीय समुदाय अपनी सभ्यता तभी विकसित कर पाता है , जब वह समुदाय अपना आर्थिक-समाजिक...
कर का इतिहास मानव सभ्यता का इतिहास है, क्योंकि कोई भी मानवीय समुदाय अपनी सभ्यता तभी विकसित कर पाता है, जब वह समुदाय अपना आर्थिक-समाजिक तन्त्र विकसित करता है। यह सामाजिक एवं आर्थिक तन्त्र की स्थिरता स्थायी कार्मिकों द्वारा आती है।
भारतीय
इतिहास में ऋवैदिक काल में राजा को स्वैच्छिक रूप से दिये जाने वाले उपहार बलि
कहलाते थे, ये उत्तर वैदिक काल में निश्चित एवं
अनिवार्य हो गये। इसी प्रकार भाग, जो उपज का सोलहवा भाग था,
वस्तुतः कर की ही विकसित हो रही व्यवस्था थी।
कर
का व्यवस्थित विभाजन एवं वर्णन मौर्यकाल से प्राप्त होता है, यहॉ कृषि और व्यापार से सम्बन्धी करों का स्पष्ट विभाजन किया गया। यहॉ
स्थानीय प्रशासन सम्बन्धी करों का भी उल्लेख मिलता है।
चाणक्य
ने लिखा है कि ‘‘मधुदोहं दुहेद राष्ट्रं भ्रमरा इव पादपम्’’
अर्थात् राज्य का कर एकत्रण एक मधुमक्खी के समान होना चाहिए,
जिस प्रकार मधुमक्खी पुष्प से मकरन्द एकत्र करती है, परन्तु पुष्प को कोई क्षति नहीं होती है।
मध्यकाल
में कर प्रणाली पर सर्वाधिक ध्यान अलाउदीन खिलजी द्वारा दिया गया, इसने सम्पूर्ण भूमि की नाप करवाकर उपज कर निर्धारित किया, इसकी मानक माप ‘बिस्वा’ आज भी
भूमि के माप में प्रयोग होती है, पुनः अलाउदीन का बाजार
नियंत्रण भी महत्वपूर्ण था, परन्तु यहॉ उसका प्रमुख उदेद्श्य
मूल्य नियन्त्रण था, जिससे व एक बडी सेना का आर्थिक भार वहन
कर सके, परन्तु उसके इस प्रयास ने आर्थिक एवं व्यापारिक
क्षेत्र पर राज्य के नियन्त्रण की एक नवीन संकल्पना दी, क्योकि
अब तक राज्य का हस्तक्षेप मात्र कर संग्रहण तक ही सीमित था।
मध्यकाल
में शेरशाह सूरी तथा अकबर के द्वारा कर प्रणाली में व्यापक सुधार किये गये इसमें ‘वृहद सर्वेक्षण’ एवं ‘कर
दाताओं से राज्य का प्रत्यक्ष संबध’ प्रमुख था, जिससे कर प्रणाली में अनुमान आधारित कर निर्धारण समाप्त हो गया एवं
भष्टाचार में कमी हुई।
भारत
में वर्तमान कर प्रणाली ब्रिटिश प्रशासन की देन है। स्वतत्र भारत में कर प्रणाली
की औपनिवेशिक विरासत के उद्देश्य अधिक व्यापक एवं सकारात्मक थे, इसका मुख्य उदेद्श्य आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय को प्राप्त कराना था।
वस्तुतः
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया परन्तु
इसका झुकाव समाजवादी व्यवस्था की ओर रहा, जिससे
आर्थिक क्षेत्रो में आयात प्रतिस्थापन एवं अर्न्तमुखी विकास की नीति रही, इसमें भी सरकारी क्षेत्रों को बढ़ावा तथा निजी क्षेत्रों पर नियन्त्रण रखा
गया।
सीमा
शुल्क की दरें ऊॅची रखी गई जिससे घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन मिल सकें, आयकर की दरें भी ऊॅची रखी गई, जिससे आर्थिक समानता
के समाजवादी लक्ष्यों को पाया जा सके, वस्तुतः मिश्रित
अर्थव्यवस्था 80 के दशक तक संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था में बदल
चुकी थी।
संरक्षण
कभी विकास का पर्याय नहीं बन सकता संरक्षण से मात्र रूग्णता ही जन्मती है, इसी रूग्णता का चरम भारतीय अर्थव्यवस्था में 1990-91
के वर्षो में सामने आ गया। यह आघात इतना असहनीय था कि, इसने
नीति नियन्ताओं एवं अर्थशास्त्रियों को एक गहरी नींद से जगा दिया, इस आघात ने भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा, दिशा एवं
विकास के मानकों को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया, अब
प्रतिस्पर्धा ही वह संजीवनी थी, जिससे रूग्ण आर्थिक व्यवस्था
में जीवन संचार किया जा सकता था।
यह
प्रतिस्पर्धा आन्तरिक एवं वाहय दोनो स्तरों पर थी, अर्थात्
निजी बनाम निजी, निजी बनाम सार्वजनिक तथा राष्ट्रीय बनाम
अंतरराष्ट्रीय।
अर्थव्यवस्था
के इस नीतिगत परिवर्तन ने कर व्यवस्था मे भी आमूल चूल परिवर्तन किये अब कर
व्यवस्था के लक्ष्य राजस्व वृद्धि के साथ, आर्थिक संवृद्धि
के संसाधनों का कुशल प्रयोग एवं आर्थिक कुशलता में वृद्धि हो गये।
कर
की दरों में कमी लायी गई तथा कर प्रक्रिया का सरलीकरण किया गया, जिससे कर आधार में वृद्धि हुई तथा प्रतिस्पर्धा को बढावा मिला। इस प्रकार 1990 के पश्चात् कर सुधारों का जो चरण प्रारम्भ हुआ वो वर्तमान में भी सतत
जारी है।
90 के दशक के प्रारम्भ में किये गये कर सुधार प्रो0 राजा जे0 चेलैया समिति की अनुसंशा पर आधारित थे, जबकि अगले दशक के सुधार विजय केलकर टास्क फोर्स की अनुसंशाओ पर आधारित थे।दोनों समितियों का सुझाव था कि कर प्रणाली को कुशल बनाया जाय जिससे सरकार को पर्याप्त मात्रा में कर राजस्व प्राप्त हो, दूसरी ओर कर प्रणाली आर्थिक संवृद्धि को बढावा दें तथा संसाधनों के कुशल आवंटन में सहायक हो।
कर प्रणाली सरलीकृत हो जिससे सरकार तथा करदाताओं दोनों के लिए इसका अनुपालन सहज हो सकें। कर की दरों को युक्ति संगत बनाया जाय ताकि करवंचना की प्रवृत्ति रूके तथा कर आधार व्यापक हों।कम्प्यूटीकरण एवं नेटवर्किग के माध्यम से सभी प्रासंगिक कर सूचना तक व्यापक पहुॅच बनायी जा सकें, जिससे अर्थव्यवस्था में काले धन की भूमिका और मनी लांड्रिग की समस्या से निपटा जा सकें।
जहॉ
तक प्रत्यक्ष करों का सवाल है, आर्थिक सुधारों के
प्रारम्भ में इनकी भूमिका बहुत सीमित थी। जो कर प्रणाली के अकुशलता का प्रतीक थी,
क्योंकि प्रत्यक्ष कर प्रणाली सामान्यतः प्रगतिशील प्रणाली है,
इससे आय-विवरण में असमानता कम करने में सहायता मिलती है क्योकि आयकर
का बोक्ष अधिक आय वालों पर आनुपातिक रूप से अधिक पडता है। इसके अलावा संसाधनों के
आवंटन, निवेश तथा आर्थिक प्रतिस्पर्धा पर इसका नकारात्मक
प्रभाव न्यूनतम होता है।
केलकर कमेटी ने कृषि को आयकर दायरें में लाने की सस्तुति की थी, परन्तु
कृषि राज्य सूची का विषय है, ऐसे में राज्य सरकारों को कृषि
पर आयकर लगाने में कुछ व्यवहारिक समस्यायें है जैसे कि कृषि आय का आकलन एवं कर
संग्रहण की प्रशानिक समस्यायें, क्योंकि कृषक व्यापारी की
भाति लेखांकन नहीं रखता, पुनः कृषि की सवृद्धि दर भी काफी कम
है। ऐसे में कृषि पर कर लगाना घातक भी हो सकता है।
केलकर कमेटी ने आयकर में दी जाने वाली रियायतों को भी समाप्त करने का सुझाव दिया था, जो कि आवसीय ऋण, निवेश पत्र, बीमा तथा सेज में होने वाली आय पर भी दी जाती है क्योकि इससे कर प्रणाली में जटिलता बढती है और यह आर्थिक समानता के लक्ष्यों का प्राप्त करने का कुशल तरीका नहीं होता। परन्तु सरकार ने बचत प्रोत्साहन तथा आवसीय सुविधाओं में वृद्धि के उद्देश्य से इन रियायतों को समाप्त नहीं किया है।
निगम
करों को अत्याधिक तर्किक बनाया गया है, परन्तु
रियायतों की समस्या यहॉ भी बनी हुई है जो कम्पनियॉ रियायतों का लाभ लेकर निगम कर
से बच जाती है उन पर न्यूनतम वैकल्पिक कर (एम0ए0टी0) लगाया जाता है। परन्तु इससे निगम कर की जटिलता
बढती है। उपरोक्त सीमाओं के बाद भी प्रत्यक्ष कर प्रणाली में व्यापक सुधार हुआ है,
कराधार में वृद्धि हुई है, जिससे वर्तमान में
प्रत्यक्ष कर का योगदान कुल कर राजस्व में 50 प्रतिशत से
अधिक है।
अप्रत्यक्ष
करों में किये जाने वाले सुधार अधिक महत्वपूर्ण होते है क्योकि इनका समस्त आर्थिक
गतिविधियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पडता है। अप्रत्यक्ष करों में प्रमुख कर सीमा
शुल्क है,
जिसकी दरें अर्थव्यवस्था की प्रकृति को स्पष्ट करती है।
आर्थिक सुधारों के प्रारम्भ में सीमा शुल्क उच्चतम था, कुछ मामलों में तो ये दरें विश्व में सर्वाधिक थी। इनका मुख्य उद्देश्य आयात को हतोत्साहित करना व घरेलू उद्योगों को सरक्षण देना था, परन्तु इससे राजस्व वृद्धि नही होती क्योकि व्यापार पर प्रतिकुल असर पडता है तथा तस्करी को प्रोत्साहन मिलता है। घरेलू उद्योगों पर इसका प्रभाव प्रारम्भ में तो सकारात्मक रहा लेकिन बाद में सीमित प्रतिस्पर्धा के कारण कार्य कुशालता ओर गुणवता में गिरावट आई, उत्पादन की नवीन तकनीकों पर शोध नहीं हुये, उत्पादन लागत में वृद्धि होने लगी जिससे भारत अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धात्मक नहीं बन सका।
वर्ष
1991 में किये गये सरचनांत्मक सुधारों में उदारीकरण प्रमुख पक्ष था जिसके लिये
भारत ने सीमा शुल्क दरों में भारी कमी की, भारत का यह प्रयास
दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से प्रभावित था, जहॉ सीमा शुल्क
की दरें काफी कम है, जिससे उनके विदेश व्यापार में व्यापक
वृद्धि हुई है।
उत्पाद
शुल्क में सेनवैट प्रणाली को वर्ष 2000 से लागू
किया गया है, जिसमें ‘‘कर की दरों’’
और ‘‘कर दरों की सख्या’’ दोनो में कमी की गई है। राज्य स्तर पर वैट प्रणाली को वर्ष 2005 से लागू किया गया। वैट (मूल्य वर्धित कर) वस्तुतः स्वंय में कोई कर नहीं
अपितू कर निर्धारण की एक प्रक्रिया है, इसका जन्म फ्रांस में
हुआ तथा वर्तमान में प्रायः सभी प्रमुख राष्ट्र इस प्रणाली का प्रयोग कर रहे हैं।
वैट
प्रणाली में करो के ऊपर कर नहीं लगता, इसकी सरचंना
ऐसी है कि, करवंचना की सम्भावना न्यूनतम होती है। भारत में सभी राज्यों द्वारा इसे
लागू करने से राज्य के मध्य सामन्जस्य बना है, जिससे भारत को
एक वास्ताविक राष्ट्रीय बाजार बनाया जा सके। वैट लागू होने से राजस्व की स्थिति
सुधरी ।
केन्द्रीय
बिक्री कर वैट प्रणाली के अन्तर्गत नहीं आता जिससे वैट प्रणाली में विकृति पैदा
होती है,
इसी कारण केन्द सरकार इसे चरणबद्ध रूप में समाप्त कर रही थी। केलकर
टास्क फोर्स का मानना था कि केन्द्रीय तथा राज्य स्तर पर अप्रत्यक्ष करों में जो
सुधार हो रहा हैं इसकी परिणति एक राष्ट्रीय कर प्रणाली में होगी , तभी भारत का वास्ताविक आर्थिक एकीकरण हो पायेगा तथा भारतीय उद्योग एवं
उपभोक्ताओं को एक विशालकाय घरेलु बाजार का पूरा लाभ मिल सकेगा।
उस
समय वस्तु के निर्माण व बिक्री के चरण में उसे राज्य वैट, सेन वैट, केन्द्रीय बिक्री कर, प्रवेश कर, सेवा कर तथा चुंगी आदि प्रक्रियाओं से
गुजरना पडता था। इसी कारण भारत दुनिया में सबसे अधिक दर से अप्रत्यक्ष कर वसूलने
वाले देशो में एक था। चुंगी कर वसूली की सबसे पुरानी तथा अकुशल प्रद्धति है,
जिसे विकसित देश 100 साल पहले ही अलविदा कर
चुके है।
भारत
में बढते सेवा क्षेत्र को देखते हुये सर्वप्रथम वर्ष 1994-95 में एक नवीन कर ‘सेवा कर’ लगाया
गया जिसे आगे लगातार नयी सेवाओं को जोड़ा जाता रहा, और यह एक प्रमुख कर बन गया था।
केलकर
द्वारा प्रस्तावित वस्तु ओर सेवा कर (जी0एस0टी0) इन तमाम अप्रत्यक्ष करों को एकीकृत करके एकल,
पारदर्शी और सरल प्रणाली में परिवर्तित किया जाना था। इस एकीकृत कर
को केन्द्र तथा राज्यों में बॅाटा जाता है। इस व्यवस्था के लागू होने के लिये
केन्द्र तथा राज्यों में पूर्ण सहमति आवश्यक थी। सिद्धान्तः इसे सहमति प्राप्त है
परन्तु कार्यकारी एवं व्यवहारिक स्वरूप पर केन्द्र व राज्यों में मतभेद थी।
राज्यों की प्रमुख चिंता उनकी वित्तीय स्वायत्ता को लेकर थी, क्योकि उत्पादन शुल्क
पर केन्द्र एवं वाणिज्य कर पर राज्य को अधिकार था, परन्तु जी0एस0टी0 में इसका क्या स्वरूप
हो तथा राज्यों एंव राज्यों के कर-तन्त्र की क्या भूमिका हो इस पर मतैक्य नहीं बन
पा रहा था ।
अंततः
कई दौर की वार्ता के बाद केंद्र और राज्यों में सहमति बन सकी जिसके परिणाम स्वरूप
1 जुलाई 2017 को जी0एस0टी0 को पूरे भारत में लागू
कर दिया गया, निश्चित रूप से इससे राज्यों की वित्तीय स्वायत्ता कम होगी, परन्तु उनका कर राजस्व बढेगा तथा बढते हुये सेवा कर में भी उन्हे भगीदारी
प्राप्त होगी। इस प्रकार एकल कर व्यवस्था से बना ‘भारतीय
राष्ट्रीय बाजार’ समस्त राज्यों की आर्थिक व वित्तीय
संवृद्धि में सहायक होगा।
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